उपर लिखी पंक्ति तो आपने अक्सर सुनी होगी। पंक्ति का आशय स्पष्ट है कि जिस वक्त भगवान रामचन्द्र ने रावण का वध कर पूरी दुनियां को उसके आतंक से मुक्ति दिलायी थी तब बुरा करने वाले कम थे। लोग कहते हैं कि पाप से भरी इस दुनिया में अब हर कदम पर रावण मिलते है इनको समाप्त करने के लिए इतने राम कहां से आयेंगे।
लेकिन जरा सोचिये यदि राम के आने के इन्तजार में हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें तो क्या इन रावणों की संख्या और नहीं बढ़ती जायेगी। हम-आप अगर अपने-अपने हिस्से की अच्छाईयां समाज में रखें और कोशिश करें कि अपने आसपास की बुराईयां दूर कर सकें तो हमें राम के आने की कोरी कल्पना के साथ नहीं जीना पड़ेगा।
अपने प्रेम और सौहार्द की भावना से समाज में निरन्तर बदलाव लाने की कोशिश करना ही असली दशहरा होता। दशहरा हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इस पर्व को हर्ष और उल्लास के साथ मनाने के साथ ही इसे आत्मसात करने की भी जरूरत है।
‘इंसान से इंसान का हो भाईचारा’ इस इबारत को चरितार्थ करते हम ऐसी ही एक सख्सियत के बारे में बताने जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के बांदा शहर का वाशिंदा तुफैल अहमद, हर साल चार ‘रावण’ के पुतले बनाते है और आग लगाकर मारते भी है। नेकी का यह काम उन्हेे विरासत में उसके अब्बू एजाज से मिला है।
बांदा शहर के मर्दन नाका निवासी मरहूम एजाज अहमद पांच दशकों तक ‘रावण’ का पुतला बनाने और उसे आग लगाने का काम करते रहे। उनके इंतकाल के बाद यह काम बेटा तुफैल अहमद कई साल से कर रहा है। वह शहर में चार स्थानों के लिए ‘रावण’ का पुतला बनाता है और खुद आग लगाकर उसका वध भी करता है।
इस बार वह कुछ ज्यादा व्यस्त है, क्योंकि मोहर्रम और दशहरा एक ही दिन है। इसलिए वह दिन में रावण का पुतला और रात में ताजिया बनाने का काम कर रहे है।
तुफैल अहमद ने बताया, ‘पांच दशक तक मेरे अब्बू रावण बनाने और जलाने का काम करते रहे। उनके इंतकाल के बाद मुझे यह काम विरासत में मिला। रावण ने बौद्धिक होने के बाद भी दुष्टतापूर्ण काम किया था, इसलिए उसका पुतला दहन कर मुझे संतुष्टि मिलती है।’
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